This poem was shared on facebook recently:
बिक गयी है धरती, गगन बिक न जाए !
बिक रहा है पानी, पवन बिक न जाए !
चाँद पर भी बिकने लगी है जमीं,
डर है की सूरज की तपन बिक न जाए !
हर जगह बिकने लगी है स्वार्थ नीति,
डर है की कहीं धर्म बिक न जाए !
देकर दहॆज ख़रीदा गया है अब दुल्हे को,
कही उसी के हाथों दुल्हन बिक न जाए !
हर काम की रिश्वत ले रहे अब ये नेता,
कही इन्ही के हाथों वतन बिक न जाए !
सरे आम बिकने लगे अब तोह सांसद,
डर है की कहीं संसद भवन बिक न जाए !
आदमी मरा तोह भी आँखें खुली हुई हैं,
डरता है मुर्दा, कहीं कफ़न बिक न जाए !
No comments:
Post a Comment