Monday, May 12, 2014

Poem: Bik raha hai sab kuch | everything is for sale

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बिक गयी है धरती, गगन बिक न जाए !
बिक रहा है पानी, पवन बिक न जाए !

चाँद पर भी बिकने लगी है जमीं,
डर है की सूरज की तपन बिक न जाए !

हर जगह बिकने लगी है स्वार्थ नीति,
डर है की कहीं धर्म बिक न जाए !

देकर दहॆज ख़रीदा गया है अब दुल्हे को,
कही उसी के हाथों दुल्हन बिक न जाए !

हर काम की रिश्वत ले रहे अब ये नेता,
कही इन्ही के हाथों वतन बिक न जाए !

सरे आम बिकने लगे अब तोह सांसद,
डर है की कहीं संसद भवन बिक न जाए !

आदमी मरा तोह भी आँखें खुली हुई हैं,
डरता है मुर्दा, कहीं कफ़न बिक न जाए !

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